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एक दिन निर्मला डॉक्टर साहब से घर आई, तो उसे बहुत उदास देखकर सुधा ने पूछा-बहिन, आज बहुत उदास हो, वकील साहब की तबीयत तो अच्छी है, न?
निर्मला-- क्या कहूं, सुधा? उनकी दशा दिन-दिन खराब होती जाती है, कुछ कहते नहीं बनता। न जाने ईश्वर को क्या मंजूर है?
सुधा-- हमारे बाबूजी तो कहते हैं कि उन्हें कहीं जलवायु बदलने के लिए जाना जरुरी है, नहीं तो, कोई भंयकर रोग खड़ा हो जायेगा। कई बार वकील साहब से कह भी चुके हैं पर वह यही कह दिया करते हैं कि मैं तो बहुत अच्छी तरह हूं, मुझे कोई शिकायत नहीं। आज तुम कहना।
निर्मला-- जब डॉक्टर साहब की नहीं सुना, तो मेरी सुनेंगे?
यह कहते-कहते निर्मला की आंखें डबडबा गई और जो शंका, इधर महीनों से उसके हृदय को विकल करती रहती थी, मुंह से निकल पड़ी। अब तक उसने उस शंका को छिपाया था, पर अब न छिपा सकी। बोली-बहिन मुझे लक्षण कुद अच्छे नहीं मालूम होते। देखें, भगवान् क्या करते हैं?
सुधा-- तुम आज उनसे खूब जोर देकर कहना कि कहीं जलवायु बदलने चाहिए। दो चार महीने बाहर रहने से बहुत सी बातें भूल जायेंगी। मैं तो समझती हूं,शायद मकान बदलने से भी उनका शोक कुछ कम हो जायेगा। तुम कहीं बाहर जा भी न सकोगी। यह कौन-सा महीना है?
निर्मला-- आठवां महीना बीत रहा है। यह चिन्ता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैंने तो इसके लिए ईश्चर से कभी प्रार्थन न की थी। यह बला मेरे सिर न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभागिनी हूं, बहिन, विवाह के एक महीने पहले पिताजी का देहान्ता हो गया। उनके मरते ही मेरे सिर शनीचर सवार हुए। जहां पहले विवाह की बातचीत पक्की हुई थी, उन लोगों ने आंखें फेर लीं। बेचारी अम्मां को हारकर मेरा विवाह यहां करना पड़ा। अब छोटी बहिन का विवाह होने वाला है। देखें, उसकी नाव किस घाट जाती है!
सुधा-- जहां पहले विवाह की बातचीत हुई थी, उन लोगों ने इन्कार क्यों कर दिया?
निर्मला-- यह तो वे ही जानें। पिताजी न रहे, तो सोने की गठरी कौन देता?
सुधा-- यह ता नीचता है। कहां के रहने वाले थे?
निर्मला-- लखनऊ के। नाम तो याद नहीं, आबकारी के कोई बड़े अफसर थे।
सुधा ने गम्भीरा भाव से पूछा-- और उनका लड़का क्या करता था?
निर्मला-- कुछ नहीं, कहीं पढ़ता था, पर बड़ा होनहार था।
सुधा ने सिर नीचा करके कहा-- उसने अपने पिता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपने बाप को दबा न सकता था?
निर्मला-- अब यह मैं क्या जानूं बहिन? सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती? जो पण्डित मेरे यहां से सन्देश लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इन्कार कर रहा है। लड़के की मां अलबत्ता देवी थी। उसने पुत्र और पति दोनों ही को समझाया, पर उसकी कुछ न चली।
सुधा-- मैं तो उस लड़के को पाती, तो खूब आड़े हाथों लेती।
निर्मला-- मरे भाग्य में जो लिखा था, वह हो चुका। बेचारी कृष्णा पर न जाने क्या बीतेगी?
संध्या समय निर्मला ने जाने के बाद जब डॉक्टर साहब बाहर से आये, तो सुधा ने कहा-- क्यों जी, तुम उस आदमी का क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह?
डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की ओर कुतूहल से देखकर कहा-- ऐसा नहीं करना चाहिए, और क्या?
सुधा-- यह क्यों नहीं कहते कि ये घोर नीचता है, पहले सिरे का कमीनापन है!
सिन्हा-- हां, यह कहने में भी मुझे इन्कार नहीं।
सुधा-- किसका अपराध बड़ा है? वर का या वर के पिता का?
सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है? विस्मय से बोले-- जैसी स्थिति हो अगर वह पिता क अधीन हो, तो पिता का ही अपराध समझो।
सुधा-- अधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्त्तव्य नहीं है? अगर उसे अपने लिए नये कोट की जरुरत हो, तो वह पिता के विराध करने पर भी उसे रो-धोकर बनवा लेता है। क्या ऐसे महत्तव के विषय में वह अपनी आवाज पिता के कानों तक नहीं पहुंचा सकता? यह कहो कि वह और उसका पिता दोनों अपराधी हैं, परन्तु वर अधिक। बूढ़ा आदमी सोचता है- मुझे तो सारा खर्च संभालना पड़ेगा, कन्या पक्ष से जितना ऐंठ सकूं, उतना ही अच्छा। मगेर वर का धर्म है कि यदि वह स्वार्थ के हाथों बिलकुल बिक नहीं गया है, तो अपने आत्मबल का परिचय दे। अगर वह ऐसा नहीं करता, तो मैं कहूंगी कि वह लोभी है और कायर भी। दुर्भाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरा पति है और मेरी समझ में नहीं आता कि किन शब्दों में उसका तिरस्कार करुं!
सिन्हा ने हिचकिचाते हुए कहा-- वह...वह...वह...दूसरी बात थी। लेन-देन का कारण नहीं था, बिलकुल दूसरी बाता थी। कन्या के पिता का देहान्त हो गया था। ऐसी दशा में हम लोग क्यो करते? यह भी सुनने में आया था कि कन्या में कोई ऐब है। वह बिलकुल दूसरी बाता थी, मगर तुमसे यह कथा किसने कही।
सुधा-- कह दो कि वह कन्या कानी थी, या कुबड़ी थी या नाइन के पेट की थी या भ्रष्टा थी। इतनी कसर क्यों छोड़ दी? भला सुनूं तो, उस कन्या में क्या ऐब था?
सिन्हा-- मैंने देखा तो था नहीं, सुनने में आया था कि उसमें कोई ऐब है।
सुधा-- सबसे बड़ा ऐब यही था कि उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था और वह कोई लंबी-चौड़ी रकम न दे सकती थी। इतना स्वीकार करते क्यों झेंपते हो? मैं कुछ तुम्हारे कान तो काट न लूंगी! अगर दो-चार फिकरे कहूं, तो इस कान से सुनकर उसक कान से उड़ा देना। ज्यादा-चीं-चपड़ करुं, तो छड़ी से काम ले सकते हो। औरत जात डण्डे ही से ठीक रहती है। अगर उस कन्या में कोई ऐब था, तो मैं कहूंगी, लक्ष्मी भी बे-ऐब नहीं। तुम्हारी खोटी थी, बस! और क्या? तुम्हें तो मेरे पाले पड़ना था।
सिन्हा-- तुमसे किसने कहा कि वह ऐसी थी वैसी थी? जैसे तुमने किसी से सुनकर मान लिया।
सुधा-- मैंने सुनकर नहीं मान लिया। अपनी आंखों देखा। ज्यादा बखान क्या करुं, मैंने ऐसी सुन्दी स्त्री कभी नहीं देखी थी।
सिन्हा ने व्यग्र होकर पूछा-- क्या वह यहीं कहीं है? सच बताओ, उसे कहां देखा! क्या तुम्हारे घर आई थी?
सुधा-- हां, मेरे घर में आई थी और एक बार नहीं, कई बार आ चुकी है। मैं भी उसके यहां कई बार जा चुकी हूं, वकील साहब के बीवी वही कन्या है, जिसे आपने ऐबों के कारण त्याग दिया।
सिन्हा-- सच!
सुधा-- बिलकुल सच। आज अगर उसे मालूम हो जाये कि आप वही महापुरुष हैं, तो शायद फिर इस घर मे कदम न रखे। ऐसी सुशीला, घर के कामों में ऐसी निपुण और ऐसी परम सुन्दारी स्त्री इस शहर मे दो ही चार होंगी। तुम मेरा बखान करते हो। मै। उसकी लौंडी बनने के योग्य भी नहीं हूं। घर में ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ है, मगर जब प्राणी ही मेल के नहीं, तो और सब रहकर क्या करेगा? धन्य है उसके धैर्य को कि उस बुड्ढे खूसट वकील के साथ जीवन के दिन काट रही है। मैंने तो कब का जहर खा लिया होता। मगर मन की व्यथा कहने से ही थोड़े प्रकट होती है। हंसती है, बोलती है, गहने-कपड़े पहनती है, पर रोयां-रोयां राया करता है।
सिन्हा-- वकील साहब की खूब शिकायत करती होगी?